हर शख्स (गजल)

घुटनभरी जिंदगी जी रहा है हर शख्स
अजब सी कश्मकश में, उलझा है हर शख्स।

बातें तो करनी है जी भर के किसी से


अपने ही अहंकार में, डूबा है हर शख्स ।

रिश्ते निभाना तो हर कोई चाहता है
किसी ना किसी गलतफहमी में, जी रहा है हर शख्स ।

दिन-रात एक कर के कमाता है चंद रुपय्या
कर्जा उठा उठा के, जी रहा है हर शख्स।

इक्कीसवी सदी है विश्व है गांव जैसा
फिर क्यों भुखमरी से, मर रहे हैं कुछ शख्स।

धर्म, जाति, पंथ सब हमने हैं बनाएं
इंसान से इंसान को, क्यों बाँट रहा है हर शख्स।

अंदर का इंसान भूखा और प्यासा है सदियों से
अल्लाह, गॉड, ईश्वर को ढूंढ रहा है हर शख्स ।

ईसा, बुद्ध, कृष्ण, पैगंबर सब सोच में है बैठे
क्या से क्या हो गया, आज यहाँ पर हर शख्स।

प्यारभरी नजर से देखा कर हर किसीं को ‘राहुल’
जन्नत यहीं पर होगी, मान जाएगा हर शख्स।

 

– © डॉ. राहूल
१९/१०/२०२१

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